17-11-69 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन

“फर्श से अर्श पर जाने की युक्तियाँ” 

यहाँ भट्ठी में किस लिए आये हो? देह में रहते विदेही हो रहने के अभ्यास के लिये। जब से यहाँ पाँव रखते हो तब से ही यह स्थिति होनी चाहिए। जो लक्ष्य रखा जाता है उसको पूर्ण करने के लिए अभ्यास और अटेन्शन चाहिए। बापदादा हरेक को नई बात के लिये ही बुलाते हैं। अधर कुमारों को विशेष इसलिए बुलाया है - पहले तो अपना जो गृहस्थ व्यवहार बनाया है उसमें जो उल्टी सीढ़ी चढ़ी है, उस उल्टी सीढ़ी से नीचे उतरने के लिए बुलाया है। और उल्टी सीढ़ी से उतार कर फिर किसमें चढ़ाना है? अर्श से फर्श पर, फिर फर्श से अर्श पर। उल्टी सीढ़ी का कुछ न कुछ जो ज्ञान रहता है, उस ज्ञान से अज्ञानी बनाने के लिये और जो सत्य ज्ञान है उनकी पहचान देकर शान-स्वरूप बनाने के लिए बुलाया है। पहले उतारना है फिर चखाना है। जब तक पूरे उतरे नहीं है तो चढ़ भी नहीं सकते। सभी बातों में अपने को उतारने के लिये तैयार हो? कितनी बड़ी सीढ़ी से उतरना है? उल्टी सीढ़ी कितनी लम्बी है? अभी तक जो पुरुषार्थ किया है, उसमें समझते हो कि पूरे ही सीढ़ी उतरे है कि कुछ अभी तक उतर रहे हो? पूरी जब उतर जायेंगे तो फिर चढ़ने में देरी नहीं लगेगी लेकिन उतरते-उतरते कहाँ न कहाँ ठहर जाते हो। तो अब समझा किस लक्ष्य से बुलाया है? 63 जन्मों में जो कुछ उल्टी सीढ़ी चढ़े हो वह पूरी ही उतरनी पड़े। फिर चढ़ना भी है। उतरना सहज है वा चढ़ना सहज है? उतरना सहज है वा उतरना भी मुश्किल है? अभी आप जो पुरुषार्थ कर रहे हो वह उतर कर चढ़ने का कर रहे हो? कि सिर्फ चढ़ने का कर रहे हो? कुछ मिटा रहे हो कुछ बना रहे हो। दोनों काम चलता है ना। आपको मालूम है लास्ट पौढ़ी (सीढ़ी) कौनसी उतरनी है? इस देह के भान को छोड़ देना है। जैसे कोई शरीर के वस्त्र उतारते हो तो कितना सहज उतारते हो। वैसे ही यह शरीर रूपी वस्त्र भी सहज उतार सको और सहज ही समय पर धारण कर सको, किसको यह अभ्यास पूर्ण रीति से सीखना है। लेकिन कोई-कोई का यह देह अभिमान क्यों नहीं टूटता है? यह देह का चोला क्यों सहज नहीं उतरता है? जिसका वस्त्र तंग, टाइट होता है तो उतार नहीं सकते हैं। यह भी ऐसे ही है। कोई न कोई संस्कारों में अगर यह देह का वस्त्र चिपका हुआ है अर्थात् तंग, टाइट है, तब उतरता नहीं है। नहीं तो उतारना, चढ़ाना वा यह देह रूपी वस्त्र छोड़ना और धारण करना बहुत सहज है। जैसे कि स्थूल वस्त्र उतारना और पहनना सहज होता है। तो यही देखना है कि यह देह रूपी वस्त्र किस संस्कार से लटका हुआ है। जब सभी संस्कारों से न्यारा हो जायेंगे तो फिर अवस्था भी न्यारी हो जावेगी। इसलिए बापदादा भी कई बार समझाते हैं कि सभी बातों में इज़ी रहो। जब खुद सभी में इज़ी रहेंगे तो सभी कार्य भी इज़ी होंगे। अपने को टाइट करने से कार्य में भी टाइटनेस आ जाती है। वैसे तो जो इतने समय से पुरुषार्थ में चलने वाले हैं उन्हों को अब बहुत ही कर्तव्य में न्यारापन आना ही चाहिए। अभी इस भट्ठी में जो भी टाइटनेस है वह भी, और जो कुछ उल्टी सीढ़ी की पौढ़ीयाँ रही हुई हैं, वह उतारना भी और फिर लिफ्ट में चढ़ना भी। लेकिन लिफ्ट में बैठने के लिये क्या करना पड़ेगा? लिफ्ट में कौन बैठ सकेंगे?

बाप के लिये सारी दुनिया में लायक बच्चे ही श्रेष्ठ सौगात है। तो लिफ्ट में चढ़ने के लिये बाप की गिफ्ट बनना और फिर जो कुछ है वह भी गिफ्ट में देना पड़ेगा। गिफ्ट देनी भी पड़ेगी और बाप की गिफ्ट बनना भी पड़ेगा तब लिफ्ट में बैठ सकेंगे। समझा? अभी देखना है दोनों काम किये हैं गिफ्ट भी दी है और गिफ्ट बने भी हैं? गिफ्ट को बहुत सम्भाला जाता है और गिफ्ट को शोकेस में सजाकर रखते हैं। जैसी-जैसी गिफ्ट वैसी-वैसी शोकेस में आगे-आगे रखते हैं। आप सभी भी अपने आप को ऐसी गिफ्ट बनाओ जो लिफ्ट भी मिल जाये और इस सृष्टि के शोकेस में सभी से आगे आ जाओ। तो शोकेस में सभी से आगे रहने के लिये अधरकुमारों को दो विशेष बातों का ध्यान में रखना पड़ेगा। शोकेस में चीज़ रखी जाती है, उसमें क्या विशेषता होती है? (अट्रैक्टिव) एक तो अपने को अट्रैक्टिव बनाना पड़ेगा और दूसरा एक्टिव। यह दोनों विशेषताएं खास अधरकुमारों को अपने में भरनी हैं। यह दोनों गुण आ जायेंगे तो फिर और कुछ रहेगा नहीं। कहाँ-कहाँ एक्टिव बनने में कमी देखने में आती है। तो इस भट्ठी से विशेष कौनसी छाप लगाकर जायेंगे? यही दो शब्द सुनाया- अट्रैक्टिव और एक्टिव। अगर यह छाप लगाकर जायेंगे तो आपकी एक्टिविटी भी बदली होगी। जितनी-जितनी यह छाप वा ठप्पा पक्का लगाकर जायेंगे उतनी एक्टिविटी भी पक्की और बदली हुई देखने में आयेगी। अगर ठप्पा कुछ ढीला लगाकर जायेंगे तो फिर एक्टिविटी में चेंज नहीं देखने में आयेगी। यह तो सुना था ना-भट्ठी में आना अर्थात् अपना रूप रंग दोनों बदलना है।

भट्ठी में जो चीज़ आती है, उनकी जो बुराई होती है वह गल जाती है। जो असली रूप है, असली जो कर्तव्य है वह यहाँ से लेकर के जाना। वह कौनसा रूप है? क्या बदलेंगे? अभी रंग बदलते रहते हैं फिर एक ही रंग पक्का चढ़ जायेगा जिसके ऊपर और कोई रंग चढ़ नहीं सकता और जिस रंग को कोई मिटा नहीं सके और न मिट सके, न और कोई रंग चढ़ सके। सभी बातों में एक्टिव होना है। जैसा समय, जैसी सर्विस उसमें एवररेडी। कोई भी कार्य आता है, तो एक्टिव जो होता है, उस कार्य को शीघ्र ही समझ कर और सफलता को प्राप्त कर लेता है। जो एक्टिव नहीं होते तो पहले कार्य को सोचते रहते हैं। सोचते-सोचते समय भी गँवायेंगे, सफलता भी नहीं होगी। एक्टिव अर्थात् एवररेडी। और वह हर कार्य को परख भी लेगा। उसमें जुट भी जायेगा। और सफलता भी पा लेगा। तीनों बातें उसमें होगी। जिसमें भारीपन होता है उनको एक्टिव नहीं कहा जाता। पुरुषार्थ में भारी, अपने संस्कारों में भारी, उनको एक्टिव नहीं कहा जायेगा। एक्टिव जो होगा वह एवररेडी और इज़ी होगा। खुद इज़ी बनने से सब कार्य भी इज़ी, पुरुषार्थ भी इज़ी हो जाता है। खुद इज़ी नहीं बनते तो पुरुषार्थ और सर्विस दोनों इज़ी नहीं होती। मुश्किलातों का सामना करना पड़ता है। सर्विस मुश्किल नहीं लेकिन अपने संस्कार, अपनी कमजोरियाँ मुश्किल के रूप में देखने में आती हैं। पुरुषार्थ भी मुश्किल नहीं। अपनी कमजोरियाँ मुश्किल बना देती है। नहीं तो कोई को सहज, कोई को मुश्किल क्यों भासता। अगर मुश्किल ही है तो सभी को सभी बातें मुश्किल हो। लेकिन वही बात कोई को मुश्किल कोई को सहज क्यों? अपनी ही कमजोरियाँ मुश्किलात के रूप में आती है। इसलिये यह दो बातें धारण करनी हैं।

अट्रैक्टिव भी तब बन सकेंगे जब पहले अपने में विशेषताएं होगी। आकर्षित बनने लिये हर्षित भी रहना पड़ेगा। हर्षित का अर्थ ही है अतीन्द्रिय सुख में झूमना। ज्ञान को सुमिरण करके हर्षित होना। अव्यक्त स्थिति का अनुभव करते अतीन्द्रिय सुख में अना। इसको कहा जाता है हर्षित। हर्षित भी मन से और तन से दोनों से होना है। ऐसा जो हर्षित होता है वही आकर्षित होता है। प्रकृति और माया के अधीन न होकर दोनों को अधीन करना चाहिए। अधीन हो जाने के कारण अपना अधिकार खो लेते है। तो अधीन नहीं होना है, अधीन करना है तब अपना अधिकार प्राप्त करेंगे और जितना अधिकार प्राप्त करेंगे उतना प्रकृति और लोगों द्वारा सत्कार होगा तो सत्कार कराने लिये क्या करना पड़ेगा? अधीनपन छोड़कर अपना अधिकार रखो। अधिकार रखने से अधिकारी बनेंगे। लेकिन अधिकार छोड़ कर के अधीन बन जाते हो। छोटी-छोटी बातों के अधीन बन जाते हो। अपनी ही रचना के अधीन बन जाते हैं। लौकिक बच्चे तो भल हैं लेकिन अपनी ही रचना अर्थात् संकल्पों के अधीन हो जाते है। जैसे लौकिक रचना से अधीन बनते हो वैसे ही अब भी अपनी रचना संकल्पों के भी अधीन बन जाते हो। अपनी रचना कर्मेन्द्रियों के भी अधीन बन जाते हो। अधीन बनने से ही अपना जन्म सिद्ध अधिकार खो लेते हो ना। तो बच्चे बने और अधिकार हुआ। सर्वदा सुख, शान्ति और पवित्रता का जन्म सिद्ध अधिकार कहते हो ना। अपने आप से पूछो कि बच्चा बना और पवित्रता, सुख, शान्ति का अधिकार प्राप्त किया। अगर अधिकार छूट जाता है तो कोई बात के अधीन बन जाते हो। तो अब अधीनता को छोडो, अपने जन्म सिद्ध अधिकार को प्राप्त करो। यह जो कहते हो कब प्रभाव निकलेगा? यह प्रभाव भी क्यों नहीं निकलता कारण क्या? क्योंकि अब तक कई बातों में खुद ही प्रभावित होते रहते हो। तो जो खुद प्रभावित होता रहता है उनका प्रभाव नहीं नकलता। प्रभाव चाहते हो तो इन सभी बातों में प्रभावित नहीं होना। फिर देखो कितना जल्दी प्रभाव निकलता है। अपनी एक्टिविटी से अन्दाजा निकाल सकते हो। ऐसा सौभाग्य सारे कल्प में एक ही बार मिलता है। सतयुग में भी लौकिक बाप के साथ रहेंगे। पारलौकिक बाप के साथ नहीं। 84 जन्मों में कितना श्रृंगार किया होगा। भिन्न- भिन्न प्रकार के बहुत श्रृंगार किये? बापदादा का स्नेह यही है कि बच्चों को श्रृंगारर कर शोकेस में सृष्टि के सामने लाये। जब सभी सम्पूर्ण बनकर शोकेस अर्थात् विश्व के सामने आयेंगे तो कितने सजे हुए होंगे। सतयुग का श्रृंगार नहीं। गुणों के गहने धारण करने है।